विज्ञान का इतिहास और फलसफा (History and Philosophy of science)

चंद्रकांत राजू (C. K. Raju)

भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला

(Indian Institute of Advanced Study, Shimla)

सारांश

उपनिवेशवादी शिक्षा प्रणाली ने हमें मानसिक रूप से गुलाम बनाया.

इस शिक्षा प्रणाली को विज्ञान के एक झूठे इतिहास के सहारे थोपा गया.

हमने इस झूठे इतिहास को कभी नहीं जांचा (और आज भी जांच करने से सरासर इनकार करते हैं).

सारांश (जारी)

शिक्षा प्रणाली ही इस झूठे इतिहास को कायम रखती है.

विकिपीडिया विज्ञान के इस झूठे इतिहास के प्रचार का और एक साधन है.

  • यह एक  तृतीयक स्त्रोत है, जो केवल पश्चिमी  द्वितीयक स्रोतों को विश्वसनीय मानती है.

इस झूठे इतिहास को एक बेकार (चर्च, पश्चिमी) फलसफा  से जोड़ा.

(यह गहरी चाल हम कभी नहीं समझे.)

निष्कर्ष

हमें विज्ञान के झूठे इतिहास की प्राथमिक तथ्यों के आधार पर जांच करनी चाहिए.

इस बेकार फलसफा (और उसमे मिले क्रिस्तानी अन्धविश्वास) के बारे में सोचना चाहिए, और

शिक्षा प्रणाली बदलनी चाहिए

जिससे कि आने वाली पीढ़ी सचमुच आजाद हो

दोष किसका?

मैकॉले?

  • हिंदुस्तान में ज्यादातर लोग सोचते है की इस शिक्षा प्रणाली का दोष मैकौले को देना चाहिए.

यह गलत है.

पहली बात यह शिक्षा प्रणाली सारी दुनिया में लागू है.

जैसे कि ईरान में सूरीनाम में या ब्राजील में

कई ऐसी जगहों में जहां न मैकाले पहुंचा ना ब्रिटिश हुकूमत

याने कि मैकौले से बहुत बड़ी हस्ती (चर्च) के बारे में हम सोच भी नहीं पाए

जिसने सारी दुनिया में अपनी शिक्षा प्रणाली बैठा दी.

एक ही शिक्षा प्रणाली के कई अलग-अलग कारण ढूँढना एक घटिया सोच का नमूना है.

अगर बीमारी का सही कारण न पता चले तो उसका इलाज असंभव है.

दूसरी बात "आज़ादी" के बाद हमने क्या किया?

  • 72 साल तक
  • हम १ अरब से ज्यादा लोगों ने
  • मैकॉले या शिक्षा प्रणाली के बारे में?

दिमागी गुलामी

हमारी गुलामी जारी है.

वो कैसे? इसकी क्या निशानी है?

हम शिक्षा प्रणाली बदल नहीं सकते.

विद्यार्थी शिक्षा प्रणाली नहीं बदल सकते

ना ही टीचर को सिलेबस बदलने की आज़ादी है (स्कूल में) 

माता पिता को बच्चे की नौकरी की चिंता है, ज्ञान की परवाह नहीं है

  • (इसलिए कोचिंग क्लासेस इतनी पोपुलर हैं).

बाबू को बदलाव लाने में कोई निजी फायदा नहीं

  • (वैसे भी ज्यादातर बड़े बाबू पश्चिम की ओर ताकते रहते हैं).

नेता खुद अशिक्षित है. शिक्षा प्रणाली में  कैसे दखल दे? बदलाव कैसे लाए?

पिछले साल ही जावड़ेकर जी का बयान था कि "हमने पुस्तकों में एक लाइन नहीं बदली".

एक और शिक्षा मंत्री के हाथों मेरा सम्मान किया गया

स्वीकृति भाषण में मैंने एक अपील करी.

हमारी शास्त्रार्थ और वाद-विवाद की परंपरा रही है.

तो क्यूं न सिर्फ एक दिन सार्वजनिक बहस की जाए,

  • गणित की शिक्षा पर
  • सरकारी विशेषज्ञ और मेरे बीच

मंत्री जी ने बाद में कहा “अरे मेरे हाथ में होता तो एक मिनट में कर देता मेरे हाथ में कुछ नहीं”

यह है हमारी दिमागी गुलामी का स्पष्ट लक्षण

  • समाज का हर एक तबका मानसिक बंधन में जकड़ा हुआ है
  • शिक्षा प्रणाली को बदलने की बात तो दूर एक दिन की सार्वजनिक बहस भी न हो पाई.

यह कैसे हुआ? हम मानसिक गुलाम कैसे बने?

चर्च शिक्षा प्रणाली

संक्षेप में औपनिवेशिक शिक्षा प्रणाली चर्च की शिक्षा प्रणाली पर आधारित है.

छठी  सदी से १८७० तक पश्चिमी शिक्षा पर चर्च का वर्चस्व था, एकाधिकार था

सिर्फ  मिशन स्कूल ही नहीं  सभी बड़े-बड़े विश्वविद्यालय,  जैसे  पेरिस,  ऑक्सफोर्ड और कैंब्रिज, चर्च ने खड़े किए

चर्च की उच्च शिक्षा का मूल उद्देश्य  था अच्छे मिशनरी बनाना

  • याने की विद्यार्थी को अंधविश्वासी और आज्ञाकारी  बनाना.

आज्ञाकारी तो सब विद्यार्थी बनते हैं ही

  • नहीं तो फेल कर दिए जाते हैं.

लेकिन अन्धविश्वास कैसे?

कहानियों का सागर

चर्च की सत्ता झूठ पर आधारित है.

झूठ को सच स्थापित करने के लिए बहुत सारी कहानिया सुनाता है.

  • कहानी सुनते समय अविश्वास का निलंबन (suspension of disbelief) होता है
  • जैसे हम मान लेते हैं कि फिल्म का हीरो बीस गुंडों को एक साथ पीट देता है.

कहानी अगर कम उम्र में सुनाई जाय,

  • तो बच्चा कभी सबूत नहीं मांगता
  • और बड़ा होकर उन कहानियों का बचाव करता है जो पहली नज़र में काल्पनिक नहीं

सच का अहसास दिलाने के लिए एक कहानी के तार कई दूसरी कहानियों से जुड़े हैं.

  • लेकिन किसी भी कहानी का ठोस सबूत नहीं.

उदाहरण के लिए सबने इशु की कहानी सुनी है

  • उस कहानी को अपने जन्मदिन से जोड़ते हैं
  • लेकिन इशु के ऐतिहासिक अस्तित्व का सबूत किसी को भी नहीं मालूम

औपनिवेशिक मानसिकता की यही निशानी है

  • बहुत सी बे-बुनियाद कहानियों में दृढ विश्वास
  • एक कहानी के बचाव में दूसरी कहानी सुनाना
  • किसी कहानी का कोई ठोस सबूत नहीं दे पाना.

युक्लिड की कहानी और मैथमेटिक्स का फलसफा

क्योंकि औपनिवेशिक/चर्च शिक्षा प्रणाली (और सत्ता)

  • झूठी कहानियों पर आधारित है

मैंने सोचा क्यूं न एक कहानी को तोड़ा जाय.

हमारी मैथमेटिक्स की शिक्षा "यूक्लिड" की एक झूठी कहानी पर आधारित है.

  • यह झूठी कहानी बच्चों को हमारी आज की नवीं की पाठ्य पुस्तक सिखाती है.

इस कहानी को तोड़ने से क्या फर्क पड़ेगा?

हमारी मैथमेटिक्स की शिक्षा प्रणाली बदलेगी.

  • वो कैसे?

यह झूठा इतिहास मैथमेटिक्स के एक बेकार फलसफे से जुड़ा है.

  • नवीं की पुस्तक युक्लिड की झूठी कहानी सुनाकर इस बेकार फलसफे का गुणगान करती है.
  • और बाकी विश्व के गणित को नीचा बतलाती है.
  • जाहिर है ऐसा मैथमेटिक्स औपनिवेशिक शिक्षा के साथ ही आया.

अगर युक्लिड की कहानी झूठी है तो इस मैथमेटिक्स के फलसफे का दोबारा आंकलन करना होगा.

  • यह बहुत अहम् बात है क्योंकि औपनिवेशिक शिक्षा कहने के लिए विज्ञान के लिए आई,
  • और विज्ञान मैथमेटिक्स पर निर्भर है.

बीस साल से युक्लिड कि कहानी झूठी साबित करने की कोशिश कर रहा हूँ.

संक्षेप में सन 2002 में मैंने “Euclid’s division algorithm” मैं एक मेलिंग लिस्ट पर आपत्ति जताई

  • यूक्लिड के अस्तित्व के लिए कोई तथ्य ही नहीं
  • और ग्रीक लोगों को ठीक से भाग देना नहीं आता था

तब पश्चिम में ग्रीक मैथमेटिक्स के अग्रणी विद्वान David Fowler ने मान लिया की युक्लिड के लिए कोई भी ठोस सबूत नहीं है

"What is known at present about Euclid?"

"NOTHING"

David Fowler

लेकिन बहुत सारे अज्ञानी लोग इस झूठी कहानी पर टिके रहे

  • 2007 में मैंने एनसीईआरटी से शिकायत करी कि आप के पास यूक्लिड का क्या सबूत है?
  • एनसीईआरटी के विभागाध्यक्ष ने कहा सबूत की क्या जरूरत है हम तो कमेटी से चलते हैं!

2010 में मैंने यूक्लिड के ठोस सबूत के लिए ₹2 लाख के इनाम का ऐलान किया

यह ऐलान मलेशिया के उप शिक्षा मंत्री के सामने किया, इसका वीडियो अभी यूट्यूब पर है

लेकिन एनसीईआरटी टस-से-मस नहीं हुआ.

हाल ही में एक और लिखित शिकायत भेजी, और यूक्लिड के लिए प्राथमिक तथ्य मांगे

  • एनसीईआरटी का लिखित जवाब आया
  • कई पश्चिमी पुस्तकों में यूक्लिड का जिक्र है
  • और कोई सबूत की जरूरत नहीं

सच जानने का हमारे पास एक ही तरीका रह गया है

  • जो कुछ भी पश्चिम के विद्वान कहते हैं वह सत्य है

अगर यह मानक है तो पश्चिम के लोग कभी झूठ बोल ही नहीं सकते

  • आजादी के 70 साल बाद मानसिक गुलामी के चरम बिंदु पर पहुंच गए हैं.

जैसे कि पहले बताया इस झूठे इतिहास के सहारे मैथमेटिक्स का एक बेकार फलसफा हम पर थोपा जाता है

मैथमेटिक्स का यह पश्चिमी फलसफा बेकार क्यूं है?

यह समझाना बहुत मुश्किल है, क्योंकि किसी को इस फलसफे के बारे में मालूम ही नहीं.

हम पश्चिम की हर एक चीज की अंधी नकल करते हैं

और पश्चिम के हर एक विश्वविद्यालय में विज्ञान के इतिहास और फलसफा का विभाग रहता है

लेकिन हमारे यहां किसी भी विश्वविद्यालय में ऐसा विभाग नहीं है. इस बात में नक़ल क्यों नहीं?

यह हमारे लिए taboo (वर्जित) है. क्यों?

क्योंकि अगर हमारे पास इस इतिहास और फलसफे का ज्ञान आ जाए, तो झूठ का भंडा फूट जायेगा है और सत्ता पलट हो सकती है.

दूसरी बात, इसके बारे में हिंदी में बात करना ही मुश्किल है.

स्पष्ट सोच के लिए सही शब्द चाहिए जो नहीं हैं.

जैसे angle का सही अनुवाद "कोण" नहीं है

वैसे ही mathematics का सही अनुवाद गणित नहीं है.

इस फर्क को यहां बहुत विस्तार से नहीं समझाउंगा

इसके बारे में मेरे एक भाषण का वीडियो यूट्यूब पर कल आ जाएगा

पुराने वीडियो भी हैं

लेख भी हैं [[https://www.bhartiyadharohar.com/jhuta-ithas/][हिंदी] और अंग्रेजी दोनों में,

शोध पत्र भी हैं.

किताब भी है, जिसमे [[http://ckraju.net/papers/presentations/images/Euclid-title-page.jpg][मैथमेटिक्स में चर्च के हस्तक्षेप का वर्णन है].

गणित और मैथमेटिक्स में एक अहम फर्क यह है कि

  • गणित व्यावहारिक है लेकिन
  • मैथमेटिक्स मजहब से मिश्रित है.

लोगों को मैथमेटिक्स में मजहब से मिश्रण की बात चौंका देती है

  • लेकिन मैथमेटिक्स शब्द की व्युत्पत्ति ही मजहब से जुडी है.[mathesis]
  • इसको 2 मिनट में चेक कर सकते हैं, प्राथमिक स्त्रोतों से

गूगल में अफलातून के मैनो की खोज करें

  • Google: “Plato Meno”
  • MIT के Internet Classics archive पर जाएं
  • और Meno में soul (आत्मा)ढूंढे और तीसरी बार जहां पाया जाता है वहां देखें
  • की सुकरात गुलाम लड़के के ज्यामिति के सहज ज्ञान को आत्मा से और पुनर्जन्म से कैसे जोड़ता है

जहां अफलातून और उसके अनुयायियों ने मैथमेटिक्स को मजहब से एक तरह से जोड़ा

  • वहां चर्च ने मैथमेटिक्स को अपनी हठधर्मिता से दूसरी तरह से जोड़ा

यानी कि यूक्लिड के झूठे इतिहास का खुलासा करने पर मैथमेटिक्स में चर्च का हस्तक्षेप साफ नजर आने लगता है

मैथमेटिक्स के इस मजहबी फलसफे से कोई व्यवहारिक लाभ नहीं है

  • आज भी अगर चांद पर जाना है तो रॉकेट का प्रक्षेप पथ (trajectory) जानने के लिए गणित ही काम आता है मैथमेटिक्स नहीं.

लेकिन मैथमेटिक्स के गैर भौतिक तत्व 1+1=2 को भी बहुत कठिन बना देता है.

Cape Town challenge

  • Prove 1+1=2 in formal REAL numbers (not integers or natural numbers)
  • from FIRST PRINCIPLES (in the manner of Russell and Whitehead)
  • WITHOUT assuming any result from AXIOMATIC SET THEORY.

यह चैलेंज आपके लिए नहीं है. मैथमेटिक्स के बड़े बड़े प्रोफेसर के लिए है.

गर्व कि बात करें

कुछ लोग मुझे कहते हैं कि आप चर्च वगैरह की ज्यादा बात करते हो.

  • इसके बजाय आप सिर्फ हमारी उप्लाम्धियों की बात करो जिससे कि हमको गर्व महसूस होए

हमारी परंपरा में इसे मूर्खता माना जाता है

  • अगर हम पूर्व पक्ष का खंडन किए बगैर अपना पक्ष रखते हैं
  • इसलिए मैं वो काम कर रहा हूँ जो आज तक किसी और ने नहीं किया—पश्चिमी पूर्व पक्ष का खंडन.
  • और वह पक्ष चर्च की सोच से जुड़ा है.

लेकिन कुछ लोग इससे भी बढ़कर महा मूर्खता दिखाते हैं.

  • गर्व के लिए इतने उतावले होते हैं कि
    • अपना ही पक्ष बगैर समझे, और बगैर कुछ शोध किए, कुछ भी ठोक देते हैं
  • जैसे कि प्राचीन भारत में अंतरिक्ष यान था या एटम बम था इत्यादि

“पल भर के लिए कोई हम पर गर्व करे ले, झूठा ही सही”

  • और बाकी जिंदगी ऐसे बयानों के आधार पर हमारी संस्कृति की मजाक उड़ाए.

मेरे नजरिए में ऐसे लोग संस्कृति के सबसे बड़े दुश्मन हैं.

  • क्योंकि जो कुछ सोच कर, समझ कर करता है उसे भी वे बदनाम कर देते हैं.

खैर उनको छोड़ अब पूर्व पक्ष की बात पर वापस आते हैं.

हम पिछले कई दशकों से सुनते आ रहे हैं की

  • “पाइथागोरस प्रमेय शुल्ब सूत्र में मिलता है, पाइथागोरस के पहले”
  • जैसे कि 2015 में साइंस कांग्रेस के उद्घाटन में हर्षवर्धन जी ने बयान दिया.

यह सच है कि बौधायन इत्यादि शुल्ब सूत्रों में पैथागोरस प्रमेय के सामान सूत्र मिलता है.

लेकिन दो पूर्व पक्षों को नज़रंदाज़ किया

पहली बात मिस्त्र में और इराक में भी इस प्रमेय का ज्ञान पाया जाता है, शुल्ब सूत्रों के भी पहले से

दूसरी बात, हमारी नवीं की पाठ्य पुस्तक कहती है कि हिन्दुस्तान, मिस्त्र और ईराक की ज्यामिति घटिया किस्म की थी

  • ग्रीक लोगों की ज्यामिती उत्तम थी.
  • और हमें ज्यामिति उसी कल्पित ग्रीक विधि से करना चाहिए.

Quote from the IXth standard NCERT text used across India.

Babylonians and Egyptians used geometry mostly for practical purposes and did very little to develop it as a systematic science.

But in civilisations like Greece, the emphasis was on the reasoning behind why certain constructions work.

The Greeks were interested in establishing the truth of the statements they discoveorange using deductive reasoning (pp. 78-79).

तो पूर्व पक्ष यह है कि पाइथागोरस ने प्रमेय का एक खास (निगमनात्मक) प्रमाण दिया.

  • पाइथागोरस को श्रेय इसलिए दिया जाता है उसने सही विधि से प्रमेय को समझा
  • सबसे पहले (गलत विधि से) किसने किया उसका कोई महत्व नहीं.

ज्यामिति में क्या सही है और क्या गलत उसके बारे में हमने सोचा ही नहीं.

इसलिए इतिहास में फलसफा मिला देने की यह चाल हम आज तक नहीं समझे

  • मलेशिया में विज्ञान के इतिहास और फलसफा का जो कोर्से हमने बनाया और मैंने पढाया उसके दूसरे भाग में इस बात पर जोर दिया जाता था.
  • (हिंदुस्तान में यह कोर्स एक ही बार चला और यहां तक पहुंचा नहीं)

  • हिंदुस्तानी शायद इस चाल को कभी समझेंगे नहीं क्योंकि हमने ठान ली है कि विज्ञान का इतिहास और फलसफा ना सिखाएंगे ना सीखेंगे
  • सिर्फ डींग हाकते जाएंगे बगैर कुछ सोचे समझे या सीखे

अगर सच में गर्व है तो हमें इस पूर्व पक्ष का खंडन करना चाहिए

  • और इसको हमारी पाठ्य पुस्तकों से हटा देना चाहिए
  • गणित सिखाने की विधि बदल देना चाहिए
  • मैंने शुल्ब सूत्र पर आधारित जयमीति सिखाने की विधि (और एक पाठ्य पुस्तक भी) तैयार की है

इस पुस्तक में पूर्व पक्ष का पूरी तरह खंडन भी किया है

  • न केवल पैथागोरस और यूक्लिड का
  • लेकिन हिल्बर्ट और रसेल का भी.

सरल खंडन यह है

  • पाइथागोरस के अस्तित्व का कोई सबूत नहीं है
  • ना कोई जानता है कि उसने इस प्रमेय का क्या प्रमाण दिया

निगमन का असली अर्थ है प्रत्यक्ष प्रमाण को वर्जित करना

  • ग्रीक लोगों को प्रत्यक्ष प्रमाण वर्जित करने की क्या पड़ी थी?

वैसे भी ग्रीक परंपरा में निगमन पर आधारित इस प्रमेय का कोई प्रमाण नहीं मिलता है.

  • बीसवीं सदी के पहले पाइथागोरस प्रमेय का ऐसा कोई प्रमाण (pure deductive proof) कहीं भी नहीं मिलता है.

“ युक्लिड” की किताब में भी नहीं

  • उस किताब का पहला प्रमेय प्रत्यक्ष प्रमाण पर आधारित है
  • और चौथा प्रमेय भी जिसकी जरूरत पड़ती है पाइथागोरस प्रमेय के प्रमाण में.

  • यह बात बरट्रांड रसेल ने सौ साल पहले मान ली
  • लेकिन हमारी स्कूली पाठ्य पुस्तक इस निगमन वाले झूठ को दोहराए जा रही हैं.

सच तो यह है कि "युक्लिड" की किताब के भाष्यकार भी इसे अफलातून की ज्यामिति (या मिस्त्र की रहस्यवादी ज्यामिति) से जोड़ते हैं निगमन से नहीं

  • यही रहस्यवादी सोच पैथागोरस के अनुयायियों की थी.

लेकिन प्रत्यक्ष से चर्च की हठधर्मिता का खंडन होता है

  • इसलिए चर्च प्रत्यक्ष प्रमाण के खिलाफ है
  • और उसको वर्जित करने के गुणगान करता रहा.
  • और हमने सब बात मान ली झूठी कहानी के आधार पर

वैसे सभी हिंदुस्तानी फलसफे प्रत्यक्ष प्रमाण को पहला प्रमाण मानते हैं

  • न्याय-वैशेषिक, सांख्य-योग, पूर्व-मीमांसा, अद्वैत वेदांत, बौद्ध, जैन. लोकायत
  • विज्ञान भी प्रत्यक्ष प्रमाण (experimental method) पर आधारित है.

और experimental method का सबसे पहला विवरण हिंदुस्तान में पाया जाता है

  • दीघ निकाय के पायासी सुत्त्त में
  • Francis Bacon के दो हज़ार साल पहले.

और हम मैथमेटिक्स भी विज्ञान के लिए ही करते हैं

  • तो प्रत्यक्ष को वर्जित कर के क्या फायदा?
  • व्यवहारिक फायदा कुछ नहीं है बल्कि विषय बहुत जटिल हो जाता है.
  • राजनीतिक नुक्सान यह है कि हम पश्चिमी शब्द प्रमाण मानने पर मजबूर हो जाते हैं.

पूर्व पक्ष के मुताबिक प्रत्यक्ष प्रमाण को इसलिए वर्जित करते हैं कि वह अविश्वसनीय है

  • यह हम भी मानते हैं रज्जू सर्प न्याय के मुताबिक हम गलती से रस्सी को सांप समझ लेते हैं या सांप को रस्सी
  • विज्ञान भी मानता है कि एक्सपेरिमेंट में त्रुटियां होती हैं (experimental errors).

लेकिन यह सोचना कि डिडक्शन (निगमन) अचूक है पूरी तरह से अंधविश्वास है.

  • निगमन अचूक नहीं. (Deduction is fallible.)

शतरंज का खेल पूरी तरह से निगमन (deduction) पर आधारित है

  • बिना गलती के हार नहीं हो सकती
  • लेकिन हर एक इंसान शतरंज में हर बार गलती करता है
  • इसलिए हर बार कंप्यूटर से हारता है

मैथमेटिक्स में कई गलत सबूत छप चुके हैं

  • “यूक्लिड” की किताब के पहले प्रमेय का प्रमाण निगमनात्मक मानना गलत है
  • लेकिन इसको समझने में पश्चिमी दुनिया के सभी विद्वानों को 700 साल लग गए.

वैसे भी लोकायत ने बताया की अनुमान में गलतियां हो सकती हैं (even valid deduction may lead to errors)

  • भेड़िए के पदचिन्ह की कहानी में गलत मान्यता से गलत निष्कर्ष निकलता है
  • पश्चिमी फलसफा भी यह बात मानता है लेकिन प्रमेयों को सापेक्ष सत्य (relative truth) बोलता है

  • बगैर यह बताएं की कुछ भी बकवास सापेक्ष सत्य हो सकता है
  • सापेक्ष सत्य का मेरा जाना पहचाना उदाहरण है “हर एक खरगोश के दो सींग होते हैं”
  • वह कैसे? मान लें कि "हरेक जानवर के दो सींग होते हैं"!
  • गलत निष्कर्ष पर सही निगमन से आसानी से पहुँच सकते हैं.

हमें कैसे मालूम कि मैथमेटिक्स की शुरुआती मान्यताएं (axioms, postulates) सच है?

  • नहीं मालूम.
  • जैसे कि एक मान्यता (Hilbert's axiom) यह है “दो (अदृश्य) बिंदुओं के बीच एक ही (अदृश्य) सरल रेखा होती है”
  • अगर बिंदु दृश्य हैं तो यह गलत है. दो दृश्य बिन्दुओं को एक से अधिक रेखा से जोड़ा जा सकता है.

अदृश्य बिंदु के साथ क्या होता है यह हम केवल शब्द प्रमाण से जान सकते हैं

  • या अन्धविश्वास के सहारे जान सकते हैं.

याने कि औपनिवेशिक शिक्षा प्रणाली ने हमें

  • प्रत्यक्ष को छोड़ इतिहास और अप्रत्यक्ष चीजों के बारे में
  • पश्चिमी शब्द प्रमाण में अन्धविश्वास सिखा दिया.
  • और यह भी सिखा दिया कि (विकिपीडिया से समान) गैर पश्चिमी चीजों में विश्वास न रखो.

हमको पूरी तरह से पश्चिम के आधीन बना दिया.

शुल्ब सूत्र में सही गर्व किस बात पर?

Theorem vs calculation

  • सबसे पहले पैथागोरस प्रमेय (Pythagorean theorem) की बात करना बंद करना चाहिए,
  • क्योंकि axiomatic proof का जरा भी व्यावहारिक फायदा नहीं.
  • इसके बजाय हमें समकोण के हिसाब (“calculation of the rectangle”) की बात करनी चाहिए.

यह बात सबसे स्पष्ट रूप में मानव शुल्ब सूत्र में आती है, बौधायन इत्यादि में नहीं.

  • यहां समकोण चतुर्भुज और उसके कर्ण की बात हो रही है
  • समकोण त्रिभुज और उसके hypotenuse की नहीं.

फर्क क्या है?

  • व्यवहार में कर्ण का मान निकलना होता है.
  • इसमें वर्गमूल आ जाता है.

अगर

  • \(a\) लम्बाई और \(b\) चौड़ाई है (समकोण चतुर्भुज की)
  • और \(d\) कर्ण है तो
  • \[d = \sqrt{a^2 + b^2}\]

मिस्त्र में, इराक में और शुल्ब सूत्र में वर्ग मूल निकालने की विधि थी.

  • लेकिन ऐसी विधि ग्रीक और रोमन को नहीं मालूम थी.
  • क्योंकि उनका अंकगणित घटिया था
  • उसमे भिन्न लिखने का भी कोई तरीका नहीं था.

अब अगर \(a=1\), \(b=1\),

  • तो \[d = \sqrt {2} = 1.414213562373095...\]
  • \[= 1 + \frac{4}{10} + \frac{1}{100} + \frac{4}{1000} + \ldots\] `
  • एक अनंत श्रेढ़ी है, जिसका एक्साक्ट (exact) योग निकालना भौतिक रूप से असंभव है.

इसलिए शुल्ब सूत्र में \(\sqrt {2}\) को सविशेष कहा है

  • याने कि अवशेष के साथ.

पैथागोरस प्रमेय के deductive proof के बावजूद वह दुनिया में कहीं भी exactly true नहीं है.

  • क्योंकि इसकी मान्यतायें (axioms) इस दुनिया में कहीं भी सच नहीं.

यूरोपियों ने वर्गमूल निकालने कि विधि बारहवीं सदी के बाद सीखी

  • जब यूरोप में हिन्दुस्तानी अंकगणित दूसरी बार पहुंचा.
  • और हमारी व्रत्तमिती ("trigonometry") अरब ग्रंथों द्वारा यूरोप पहुंची.

सोलहवीं सदी इसाई में हिंदुस्तान (कोची) से जेसुइट कैलकुलस और व्रत्तमिती फिर यूरोप ले गए

  • लेकिन फिर भी यूरोपीय डूबते गए
  • क्योंकि उन्हें पृथ्वी का व्यास निकालना नहीं आता था.
  • ब्रह्मगुप्त: "भूव्यासस्य अज्ञानात व्यर्थं देशान्तरं".

याने की "पायथागोरस" हिसाब की सही समझ सोलहवीं सदी तक भी यूरोप में नहीं थी.

लेकिन हमें झूठा इतिहास सिखाया जाता है कि कैलकुलस इस्त्यादी न्यूटन की देन है

  • लेकिन सत्ताधारी अंधविश्वासियों को सिखाना मेरे बस की बात नहीं.
  • यह प्रणाली तभी बदलेगी जब हम विज्ञान का इतिहास और फलसफा सीखेंगे.

बदलाव आएगा

हम सीखें या न सीखें बदलाव ज़रूर आएगा

  • नस्लवादी सोच के खिलाफ आन्दोलन जरी है.
  • नस्लवादी इतिहासकारों ने चर्च के झूठे इतिहास को बढ़ावा दिया.
  • और इस झूठे इतिहास के सहारे अश्वेतों को नीचा ठहराया.

न केवल युक्लिड और पायथागोरस, ग्रीक वैज्ञानिक उप्लाम्ब्धियों कि सभी बातें झूठी हैं.

खगोल शास्त्र

  • मकौले नें खगोल शास्त्र (astronomy) और वैद्य शास्त्र (medicine) का जिक्र किया था
  • न्यूटन और कॉपरनिकस की बात लेकर
  • लेकिन यह भी झूठ था.

कॉपरनिकस का बड़ा हव्वा हुआ है कि

Tycho Brahe (Royal Astronomer to the Holy Roman empire) ने नीलकंठ के 1501 के मॉडल को अपने नाम से चलाया.

  • दोनों को ही चेक करने के लिए भूकेंद्रित होना ज़रूरी है.
  • इसलिए आपसे शुरूआती सवाल पूछा गया.

अंत में निष्कर्ष फिर दोहरा देता हूँ.

निष्कर्ष

हमें विज्ञान के झूठे इतिहास की प्राथमिक तथ्यों के आधार पर जांच करनी चाहिए.

इस बेकार फलसफा (और उसमे मिले क्रिस्तानी अन्धविश्वास) के बारे में सोचना चाहिए, और

शिक्षा प्रणाली बदलनी चाहिए

जिससे कि आने वाली पीढ़ी सचमुच आजाद हो.